<2680><Manorama - Sab Theek Thak Hai><Deepa Agarwal>
<अवकाश प्राप्त करने के बाद पिताजी गांव चंदनी में जाकर बसगये हैं । बीस बीघा जमीन है। जमीन के बीचो-बीच आराम देय और सुरुचि पूर्ण मकान वनवाया है। दाहिने और बाएं पड़ोस में उनके मित्र बसे हुए हैं। यार दोस्त अच्छे हैं। पैंशन है। बैंक में अच्छा बैलैंस है। मतलब पिताजी सुख पूर्वक जीवन ब्यतीत कर रहे हैं. हां, एक दुख उनको उवश्य है। उन्हीं के शब्दों में उनका इकलौता लड़का नालायक निकला। यह बात और है कि हैं कितना ही लायक क्यों न बनूँ उनकी दृष्टि में सदा नालायक ही रहूंगा। मुझो नालायक सिद्ध करने के लिये उनके पास सैकड़ो उदाहरण हैं, पर एक बात वह विशेष जोर देकर कहते हैं, वह यह कि चंद्रिका जैसी रुपवान और बुद्धिमान लड़की से मैंने शादी नहीं की। रुप और बुद्धि के साध चंद्रिका में एक औऱ गुण है कि वह पिताजी के अभिन्न मित्र कृष्ण कुमार जी की सुपुत्री है। चंदनी में दाहिने पड़ोस में कृष्ण कुमार जी ही रहते हैं। कलकत्ते में भी हमारे दोनों परिवार साथ रहते थे। दोनों परिवारों के बड़े चाहते थे कि चंद्रिका औऱ मेरी शादी हो जाय। छुटपन में तो यह एक दूसरे को चिढ़ाने का विषय था। बड़े हुए तो वह अपने रास्ते लगी और मैं अपने। वह पहले से ही अपने आवश्यकता से अधिक ज्ञान को और अधिक बढ़ाने की चिंता में लगी और में रोजी रोटी की। इस दौर में हमारा मिलना भी बहुत कम हो गया था. मुझे अच्छी नौकरी मिल गई औऱ जीवन स्थिर हुआ तो घर वालों ने तिक-तिक लगानी शुरु कर दी कि बच्चू अब शादी कर लो, चन्द्रिका तुम्हारे लिए बैठी नहीं रहेगी इत्यादि। तब मैने सोचा हर्ज ही क्या है। विचार करने पर यह विचार मुझे पसंद आने लगा, कि मेरी शादी अब हो जानी चाहिए। शुभ कार्य आरम्भ करने के लिए मैंने चन्द्रिका को टेलीफोन किया। चूंकि मामला व्यक्तिगत था इस लिए घर से दूर विक्टोरिया मेमोरियल में रानी विक्टोरिया की प्रतिमा के नीचे मिलने का प्लान वनाया। ठीक समय पर चन्द्रिका आई। उसे देखकर मुझे लगा, कि किसी बीच हम दोनों कितने कम मिले थे। लड़कपन की बात और थी अभी मैं एक आधुनिक युवती से मिल रहा था। सबसे पहली चीज जो मैने लक्ष्य की वह चन्द्रिका का चश्मा था। "तुमने चश्मा कब से लगाना शुरु कर दिया?" "बहुत दिन हो गये।" "बताया भी नहीं!" "इसमें बताने की कौन-सी बात है?" यह सचमुच वताने योग्य कोई विशेष बात नहीं थी। मैंने चन्द्रिका को बुला तो लिया था पर असल बात में आने में मुझे घबराहट हो रही थी। हालांकि पहले कोई ऐसी वात नही होती थी, जिस पर मैं चन्द्रिका से सहजता से बात नहीं कर सकता था। युवावस्था ने विशेष कर चन्द्रिका की युवावस्था ने हमारे बीच की सहजता समाप्त कर दी थी । फिर पता नहीं क्यों वह चश्मा बहुत आड़े आ रहा था। चश्मे की वना वट और चन्द्रिका के चेहरे के भाव कुछ ऐसे थे जैसे उसने किसी बच्चे की शरारत पकड़ ली हो। "तुम्हारी परीक्षा कब हैं?" मैंने पूछा था। "कौन सी परीक्षा ?" "एम.ए. की।" "कहां रहते हो एम.ए. तो मैंने पिछले साल पास कर लिया था।" "तुम्हारे पिताजी तो कह रहे थे कि तुम अध्ययन में बहुत ब्यस्त रहती हो।" "हां आजकल मैं जीवविज्ञान पर व्यक्तिगत रुप से अध्ययन कर रही हूं।" "एम.ए. में तो तुम्हारा विषय मनोविज्ञान था।" "हां।" "तो अब जीवविज्ञान क्यों ?" "जीवविज्ञान क्यों नहीं ?" उसने अपने पीछे से विचित्र भाव से मुझे देखा था। जैसे अपने जीवविज्ञान ज्ञान का प्रयोग मुझपर कर रही हो। "तुम क्या कर रहे हो आजकल ?" अब उसके प्रश्न पूछने की बारी थी। "नौकरी कर रहा हूं मैने उसे कुछ दिन पहले भी बताया था।" "वह मुझे मालूम है, नौकरी के अलावा क्या कर रहे हो ?" "अलावा ?" "मेरा मतलब अध्ययन से था।" "ओ, अध्ययन ! मैने तो उससे छुटकारा पा लिया है। मैंने अपनी ओर फिर उसी विचित्र भाव से देखते हुए पाया था। तब मुझे याद आया था कि अध्ययन पर उसके विचार क्या हैं।" "खाली समय मैं कुछ पढ़ लेता हूं मैने हड़बड़ाकर कहा था।" "आजकल क्या पढ़ रहे हो ?" "आजकल सूरज का एक उपन्यास.." "सूरज ?" "मेरा मतलब था सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला।" मैने जल्दी मे कहा था. इससे पहले कि अध्ययन पर हमारी बहस छिड़े, मैंने असल मुद्दे पर बात कर लेना उचित समझा था। "चन्द्रिका" "बोलो ।" "मैंने तुम्हें एक विशेष बात करने के लिए यहां वुलाया है।" मुझे मालूम है।" "मालूम है। कैसे मालूम है ?" "सीधी-सी बात है प्रताप। तुमने मुझे घर न बुलाकर इतनी दूर यहां बुलाया। और आजकल हम दौनों के घरो में जो बात हो रही है उसे छोड़कर और क्या बात हो सकती है।" "चलो तुमने बात आसान कर दी। तो क्या कहती हो, हम अपने-अपने मां बाप को प्रसन्न कर दें।" मेरी बात सुनकर वह खिलखिला कर हंसने लगी थी। ऐसे वह बहुत कम खिलखिलाती थी। कारण मेरी समझ में नहीं आया था। मुझे बुरा भी लगा था। यह कोई हंसने की बात तो थी नहीं। "इसमें हंसने की कौन सी बात है?" "हंसने की ही तो बात है। ऐसा कहकर शायद किसी ने आज तक लड़की का हाथ तो नहीं मांगा होगा।" "तो क्या हुआ , थोड़ा अनूठापन ही सही।" "प्रताप क्या तुम अपने मां बाप को प्रसन्न करने के लिये ही शादी कर रहे हो ?" वह थोड़ी सजीदा हो गई थी। "मैं भी प्रसन्न होऊंगा। क्या यह भी बताना पड़ेगा।" इसके बाद वह थोड़ी देर कुछ नही बोली थी। "क्या सोच रही हो मैंने पूछा था" "सोच रहीं हूं कि हमारा वैवाहिक जीवन कैसा रहेगा?" "कैसा रहेगा माने ? अच्छा रहेगा।" "तुम अध्ययन शील नहीं हो" उसके लहजे में शिकायत थी। "तो क्या हुआ तुम तो हो फिर थोड़ा बहुत अध्ययन में भी करूंगा। "तुम मेरे अध्ययन मे बाधा तो नहीं दोगे प्रताप ?" "तुम मेरा अपमान मत करों चन्द्रिका । तुम मुझे वचपन से जानती हो। उलटा सीधा सोचना बंद करो। हमारे बड़े यही चाहते हैं, कि हम दोनों शादी कर लें। अब मैं तुमसे फूछता हूं, कि क्या तुम मुझसे शादी करोगी ?" "हां प्रताप ।" उसने कहा धा और मेरा हाथ थाम लिया था। मुझे प्रसन्न होना चाहिये था, कि एक सुन्दर सुशिक्षित कन्या मे मेरी शादी तय हो गई है। पर नहीं। उस दिन घर लौटा तो मन में सब कुछ उलझा हुआ था औऱ कोई छोर पकड़ में नहीं आ रहा था। पहले इस संबंध में गहराई से नहीं सोचा था। चद्रिका से बात पक्की करने के बाद अब ऊंट किसी करवट सीधा नहीं बैठ रहा था। दो दिनों में ही मेरी अवस्था हवा निकले टायर सी हो गई। लगता है बहुत बड़ी मूर्खता कर डाली है मैंने। यानी जो लड़की कुछ ही वर्षो पूर्व मुझपर छी गंदे कह कर हंसा करती थी, उसके साथ जीवन बताने की मैंने कैसे सोच ली. उसी दिन विक्टोरिया मेमोरियल से वापस लौटते समय चन्द्रिका मुझे एक पुस्तक विक्रेता क पास ले गई थी और वहां उसने तीन सौ रुपए की दो मोटी पुस्तकें उपहार स्वरुप दी। वे पुस्तकें आने वाले दिनों के बारे में कुछ कह रहीं थी. चौथे दिन चंद्रिका का फोन आया था। उसने मुझे उसी जगह वुलाया था। अनिच्छित मन से भारी कदमों से में रानी विक्टोरिया की मूर्ति के पास पहुंचा था। चंद्रिका वहां पहले से ही मौजूद थी। गंभीर तो वह सदा सहती थी , पर उस समय वह साथारण से अधिक गंभीर थी। "प्रताप मैं तुमसे एक बात कहना चाहती हूं, पर तुम्हें दुख होगा , इस लिए समझ में नहीं आ रहा कि कैसे कहूं?" "कह डालो।" "देखो तुम मेरे मित्र हो।" "इस भूमिका की कोई आवश्कता नहीं है, चन्द्रिका । बात क्या है?" "तुम्हें दुख होगा प्रताप ।" "बात तो बताओ।" "उस दिन जब तुमने शादी की बात की थी तब से मैं इस बारे में गंभीरता सोच रहीं हूं। प्रताप हम दोनों की प्रकृति एकदम भिन्न है। यह शादी करके हम लोग भूल करेंगे क्या... क्या हम दोनों मित्र ही नहीं रह सकते ?" मैं भी तो यही चाहता था। मैं तो कभी चंद्रिका पर यह प्रकट नही होने देता, कि मैं उससे शादी नहीं करना चाहता, विशेषकर जब मैंने ही शादी की बात छेड़ी थी। चलो अच्छा हुआ कि चंद्रिका भी नहीं चाहती कि हमारी शादी हो। मुझे सोच में पड़ा देखकर चंद्रिका ने कहा था। "मुझे मालूम है कि तुम्हें दुख होगा, पर ..." "नहीं नहीं चंद्रिका तुम नहीं चाहती तो यह शादी नहीं हो सकती" मैने कहा था। और मौके का एक फिल्मी डायलॉग भी मैंने जड़ दिया था,"तुम्हारी खुशी मे ही मेरी खुशी है, चंद्रिका।" चंद्रिका से मैं शादी नहीं करना चाहता था। पर यह जान कार आश्चर्य हुआ कि चंद्रिका भी शादी के पक्ष में नहीं थी। चंद्रिका इस भ्रम में थी कि उसकी ना से मुझे दुख पहुंचा है मैंने इस भ्रम को बने रहने दिया। हां उसका ना ने मेरे अहम् को ठेस अवश्य पहुंचाई थी। जो हो, हम दोनों अनचाहे बंधन से बंधने से बच गये थे। घर में शादी की बात उठी तो मैनें चंद्रिका के साथ हुई मुलाकातों का अक्षरश: वर्णन कर दिया। दोनों घर में उठी आंधी का सामना चंद्रिका को अकेले ही करने दिया। बाद में पिताजी मुझे दोषी ठहराने लगे थे। पर उस समय तो आंधी निकल ही गई थी। इस घटना को चार साल से ऊपर हो गये। चंद्रिका और मेरा मिलना बैसे ही कम हो गया था, इस घटना के बाद तो और भी कम हो गया। बस तीन या चार बार ही हम लोग मिल पाये थे, वह भी औपचारिक रुप में ।अबतक न चंद्रिका की शादी हुई थी न मेरी ।मेरी शादी तो इसलिए नहीं हुई थी कि एक तो मेरा ध्यान और कई विषयों में बंट गया था और दूसरे मेरे दायरे में जितनी लड़कियां आई किसी में कुछ ऐसा नहीं देखा कि शादी के लिए हाय तौबा मचाता । चंद्रिका ने शादी क्यों नहीं की, मुझे नहीं मालूम उसकी भी शायद मेरी जैसी स्थिति हो । चंदनी में मैं पहले जब भी आया बस दो दिनों से अधिक नहीं रुका था । इस बार मां और पिताजी की शिकायत दूर करने के लिए मैं लम्बी छुट्टी लेकर आया था । तीसरे ही दिन मुझे लगा कि चंदनी में समय बिताना बहुत हीं टेढी खीर है। यहां आने से पहले समय कैसे बिताया जाता है इसका बाकायदा प्रशिक्षण ले लेना चाहिये था। पहला दिन तो माता -पिता से मिलने में बिताया । दूसरे दिन चंद्रिका के पिता कृष्ण कुमारजी से मिला। तीसरे दिन ,बस सामने सड़क,पीछे रेड लाईन,इन दोनो को छोड़कर मनोरंजन को और कोई साधन नजर नहीं आया ।शाम को कृष्ण कुमार जी ने बताया कि चंद्रिका भी चंदनी आने वाली है। तो मुझे प्रसन्नता हुई उस घटना के बाद मुझे चंद्रिका का सामना करने में थोड़ी झिझक होती थी । हालांकि शादी के किए मना चंद्रिका ने किया था पर मुझमें एक ऐसी अपराध भावना हो गई थी जो मुझे सहज नहीं होने देती थी ।तो आप पूछ सकते हैं कि चंद्रिका के आने का समाचार सुनकर मुझे प्रसन्नता क्यों हुई ।आप चंदनी में तीन चार दिन रहिये तो उत्तर आपको स्वयं मिल जाएगी। इस बोरियत के सामने कोई भी अपराध भावना नहीं ठहर सकती। फिर चंद्रिका के साथ वर्तमान जैसा भी हो बचपन तो उसी के साथ कटा था। उसको लेने बस अड़्डे मैं ही गया था। मुझे देख कर उसने आश्चर्य प्रकट किया। मुस्कराई पर प्रसन्न हुई या नहीं यह मैं नहीं कह पाया। रास्ते में केवल औपचारिक बातें हुई। उसके घर की, मेरे घर की, बस। अगले दिन सुबह सुबह ही मैं उसके घर पहुंच गया। वह कोई पत्रिका पढ़ रहीं थी। मुझे देखकर उसने पत्रिका रख दी। "अकेली हो।" मैने पूछा। घर में और कोई नहीं दिख रहा था। "हां। मां-पता नहीं कहां गई हैं। पिताजी हाट गये है।" उसने कहा। "क्या करने का इरादा है आज तुम्हारा ?" "कुछ विशेष नहीं।" "बड़ी बोर जगह है यह।" "यहां शहर का वातावरण तो खोजना बेबकूफी है। मैं यहां पढ़ने लिखने का पूरा सामान लेकर आई हूं।" हर बात का उसके पास काट था,हमेशा की तरह। मजे की बात यह है कि यह बातबात में मुझे बेबकूफ भी कह गई। खैर मैंने उसका बात का बुरा नहीं माना। इस तरह की चोटें तो हम दोनो के बीच चलती रहती थी और मैने चाहा भी यही कि हम दोनों का समीकरण नहीं बदले। "मुझे नहीं मालूम था कि तुम यहां मिलोगे। नहीं तो मैं तुम्हारे लिये भी कुछ पुस्तकें उठा लाती।" उसने कहा। "अच्छा किया नहीं लायी। तुम्हारी दी हुई पुस्तकें तो मेरे पास बहुत हैं। उन्हें पढ़ने के लिये रुचि उत्पन्न करना मेरे लिये कठिन कार्य है।" मुझे तुम्हारी रुचि मालूम है। मैं सूरज के उपन्यास की बात कर रही थी।" उसके होठों में हल्की स्मित की रेखा खिची हुई थी। मेरी ओर उसका आंखें चार हुई तो दोनों ठठा कर हंस पड़े। वह हंसी हमदोनो के बीच सहजता ले आई। थोड़ी देर और बैठ कर मैं वहां से चला आया। शाम हुई तो मैने छत पर एक बड़ा सा गद्दा औऱ गाव तकिये लगा दिये। वहीं गद्दे मे अधलेटा होकर मैं आसपास के दृश्य का आनन्द उठाने लगा। चांदनी छिटक आई. दूर घरों में बत्तियां टिमटिमाने लगीं। मां और पिताजी भी वहीं चले आये और हम लोग पारिवारिक बातचीत में व्यस्त हो गये। मां ने मेरी शादी का विषय उठाना चाहा। पर मैने उठाने नहीं दिया। नींचे आहट हुई। मां देखने के लिए नीचे उतरी और वहीं से आवाज दी कि चंद्रिका आई है। मैंने कहा कि उसे ऊपर ही भेज दो। तुम लोग बैठो कहकर पिताजी भी नीचे चले गये। मैं चंद्रिका के बारे में सोचने लगा। बड़ी पढ़ाकू बनती है, कितना पढ़ेगी,आखिर। चंद्रिका छत पर आई। सफेद सलवार कमीज में थी,किसी डिटर्जेंट टिकिया का बिज्ञापन बनी हुई। बहुत भली लग रही थी। मैंने बैठने के लिये कहा। वह पास ही एक गाव तगिया लगाकर घुटने मोड़कर बैठ गई बहुत देर तक न वह बोली और न मैं बोला। जब मुझे चुप्पी भारी लगने लगी तो मैंने उसकी और देखा । वह मुझे ही निहार रही थी। जगह का नाम चंदनी हो, स्थान एकांत छत हो,चन्द्रमा की चांदनी छिटकी हुई हो, लड़की का नाम चंद्रिका हो और वह चांदनी से उजले कपड़े पहने हो,ऊपर से बचपन की मित्र हो तो किसी घटन-अपघटन की कल्पना करनी चाहिए। पहले हम दोनों की टकटकी बंधी और फिर पलक झपकते ही हम एक दूसरे की बाहों में आ गए।आलिंगन के आवेश में सांस रुद्ध होने लगी। भावावेश के बाबजूद मैंने पाया कि मेरा चेतन मस्तिष्क काम कर रहा है और इस प्रश्न का हल ढूंढ रहा है कि जब हम दोनों के वीच प्रणय नहीं है,तो ऐसा क्या अव्यक्त रह गया है जिसकी अभिव्यक्ति इस समय इस आलिंगन पाश से हो रहीं है। आवेश की अवधि समाप्त हुई, चंद्रिका झट से उठकर छत की मंडेर की तरफ चल गई। इसी समय अंधेरे की चीरती हुई रेलगाड़ी आई और एक झांकी दिखाकर चली गई। फिर चुप्पी । मैंने पुकारा "चंद्रिका" पर वह बिना उत्तर दिये वहां से चली गई। मैं उठ कर मुंडेर के पास गया और अपने घर की ओर जाते हुए उसको देखता रहा। +>